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Tuesday 22 January 2013

लाहौर से कारगिल तक


यह एक माना हुआ तथ्य है कि मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी की सरकार के समय जब अटल बिहारी वाजपेयी देश के विदेश मंत्री थे, उन दिनों भारत के सम्बंध पाकिस्तान सहित सभी पड़ोसी देशों से अभी तक के सबसे अच्छे स्तर पर थे। यह बात स्वयं पाकिस्तान के कई नेताओं ने व्यक्तिगत रूप से अटल जी से कही थी। अतः यह स्वाभाविक ही था कि जब अटल जी स्वयं प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने फिर पड़ोसी देशों विशेषकर पाकिस्तान और चीन के साथ देश के सम्बंध सुधारने की पहल की।

उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे नवाज शरीफ। वे व्यक्तिगत रूप से वाजपेयी जी का बहुत आदर करते थे और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यदि पाकिस्तान के किसी नेता पर विश्वास किया जा सकता है तो वे केवल नवाज शरीफ हैं। अटल जी ने भी उन पर विश्वास किया और दोनों देशों के बीच सम्बंध सामान्य करने की पहल की। इस पहल का नवाज शरीफ ने भी हार्दिक स्वागत किया।

इसका परिणाम यह हुआ कि 1998 के अन्तिम महीनों में चली लम्बी द्विपक्षीय वार्ता के कई सकारात्मक परिणाम निकले। इनमें दिल्ली और लाहौर के बीच सीधी बस सेवा चलाना प्रमुख था, जो फरवरी 1999 में प्रारम्भ हुई। इसके साथ निरन्तर वार्ता जारी रखने, व्यापार सम्बंध बढ़ाने और परस्पर मित्रता के आधार पर परमाणु हथियारों की होड़ कम करना बल्कि समाप्त करना तक शामिल था। इसके परिणामस्वरूप दोनों देशों के मध्य वह तनाव लगभग समाप्त हो गया, जो भारत और पाकिस्तान द्वारा मई 1998 में परमाणु परीक्षणों से उत्पन्न हुआ था।

लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ती हुई यह दोस्ती पाकिस्तान में उन तत्वों को रास नहीं आयी, जिनकी समस्त राजनीति ही भारत-विरोध और हिन्दू-द्वेष के आधार पर चलती है। इनमें आई.एस.आई. और पाकिस्तानी सेना के कुछ बड़े अफसरों के साथ ही कई राजनीतिक दलों के नेता भी शामिल थे, जो समय-समय पर बयान दागकर दूध में मक्खी गिराने की कोशिश करते रहते थे। उस समय पाकिस्तान के सेना प्रमुख थे- मियाँ परवेज मुशर्रफ।

ये मियाँ मुशर्रफ यों तो भारत में पैदा हुए थे और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही पाकिस्तान सिधारे थे, इसलिए मुहाजिर थे, परन्तु वे स्वयं को मूल पाकिस्तानियों से ज्यादा पाकिस्तानी मानते थे और किसी भी हालत में भारत को नीचा दिखाना चाहते थे। अपने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अँधेरे में रखते हुए उन्होंने कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में जेहादी आतंकवादियों और बे-वर्दी पाक सैनिकों की घुसपैठ करायी। उनमें से कई के पास पाकिस्तानी सेना के परिचय पत्र और पारम्परिक हथियार भी थे।

यहाँ यह कहना गलत न होगा कि भारतीय सेना की ओर से इस मामले में घोर लापरवाही का परिचय दिया गया। पाकिस्तानी सैनिकों और आतंकवादियों की चोरी-छिपे घुसपैठ होने का पता उनको वहाँ के गड़रियों आदि से चल रहा था, परन्तु वे लापरवाह रहे और इसे साधारण घुसपैठ मान लिया, जो कि हमेशा चलती रहती है। इस लापरवाही का परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कागरिल कस्बे के आसपास ही नहीं बल्कि बाल्टिक और अखनूर सेक्टर की कई वीरान सीमावर्ती चैकियों पर भी कब्जा जमा लिया और सियाचिन ग्लेशियर में जमे बैठे हुए भारतीय सैनिकों के ऊपर गोलाबारी भी की।

बड़े पैमाने पर घुसपैठ का समाचार आने पर भारतीय सेना सक्रिय हुई और सैनिकों को सीमा पर भेजा गया। दोनों देशों के सैनिकों में भीषण लड़ाई हुई, जिसमें भारतीय पक्ष के लगभग 500 सैनिक शहीद हुए जबकि पाकिस्तानी पक्ष के लगभग 3000 सैनिकों और आतंकवादियों को अपनी जान गँवानी पड़ी। लेकिन इस लड़ाई में भारत ने अपने लगभग 70 प्रतिशत क्षेत्र पर फिर से कब्जा कर लिया। अगर लड़ायी जारी रहती, तो यह निश्चित था कि भारत अपने बाकी क्षेत्र को भी फिर से नियंत्रण में ले लेता।

जब अमेरिका को लगा कि हार की खीझ में पाकिस्तान भारत के ऊपर परमाणु हथियारों का प्रयोग कर सकता है, तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बुला भेजा और उनको ऐसे किसी भी दुस्साहस से बाज आने को कहा। इतना ही नहीं उन्होंने भारत के विरुद्ध पाकिस्तान की सहायता करने से भी इनकार कर दिया। खेद की बात तो यह है कि उस समय मियाँ मुशर्रफ अपने प्रधानमंत्री की भी नहीं सुन रहे थे, लेकिन जब चारों ओर से पाकिस्तान को हड़काया गया, तो नवाज शरीफ ने पाकिस्तान की सेना को पुरानी नियंत्रण रेखा तक लौट आने का आदेश दे दिया। मजबूर होकर पाकिस्तान की सेना को सारे स्थान खाली करके लौटना पड़ा और जिन जेहादी आतंकवादियों ने इस आदेश को नहीं माना, उनको भारतीय सेना ने खत्म कर दिया।

कारगिल के युद्ध में भारत की पूर्ण विजय हुई। इस कार्यवाही का नाम ही ‘आपरेशन विजय’ रखा गया था। इस युद्ध के समय भारत की जनता में ऐसी एकता पैदा हुई, जिसके दर्शन स्वतंत्रता के बाद केवल 1965 में किये गये थे। करोड़ों देशवासियों ने अपनी एक-एक दिन की आमदनी कारगिल के सैनिकों की सहायता के लिए दी। इस युद्ध में मारे गये भारतीय सैनिकों को शहीद का दर्जा दिया गया और उनका अन्तिम संस्कार उनके पैतृक स्थानों में राजकीय सम्मान सहित किया गया। आज भी प्रत्येक वर्ष 26 जुलाई का दिन ‘कारगिल विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है और कारगिल के शहीदों को याद किया जाता है।

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