यों तो पंडित नेहरू की अधिकांश नीतियाँ
अदूरदर्शितापूर्ण और मूर्खतापूर्ण थीं, लेकिन उनकी महामूर्खता का परिचय
उनके ‘पंचशील’ सिद्धान्त से मिलता है। 1954 में भारत और चीन के बीच एक
सन्धि की गयी थी, जिसके पाँच सिद्धान्तों को सम्मिलित रूप में पंचशील कहा
जाता था। ये पाँच सिद्धान्त थे-
1. एक-दूसरे की अखंडता और प्रभुसत्ता का
सम्मान करना,
2. एक-दूसरे पर आक्रमण न करना,
3. एक-दूसरे के मामलों में
हस्तक्षेप न करना,
4. समानता के आधार पर परस्पर लाभ के लिए कार्य करना, तथा
5. शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व। सिद्धान्तों के रूप में तो यह सब अच्छा है,
लेकिन नेहरू यह समझने में असफल रहे कि चीन दुनिया का सबसे कमीना देश है और
उसके किसी नेता का एक शब्द भी विश्वसनीय नहीं है। उसके लिए किसी समझौते का
मूल्य उस कागज के बराबर भी नहीं है, जिस पर वह समझौता लिखा गया है। यदि
नेहरू ने चीन का इतिहास पढ़ा होता, तो वे उसके विस्तारवाद को समझ भी लेते,
परन्तु वे छद्म कम्यूनिस्ट थे और हमारे अन्य कम्यूनिस्टों की तरह यह नहीं
मानते थे कि चीन भी कभी कोई गलत कार्य कर सकता है।
नेहरू को तिब्बत का
परिणाम देखकर ही सावधान हो जाना चाहिए था। अपनी अहिंसा-जन्य मूर्खता के
कारण तिब्बत ने कोई सेना नहीं बनायी थी, जो उसकी सीमाओं की रक्षा कर सके।
इसलिए चीन ने 1951 से ही उस पर कब्जा करने की कोशिशें चालू कर दी थीं। यह
उल्लेखनीय है कि तिब्बत हमेशा ही एक स्वतंत्र राष्ट्र रहा है और कभी भी चीन
का भाग नहीं रहा। 1949 में एफ्रो-एशियन देशों के सम्मेलन में तिब्बत का
प्रतिनिधि भी स्वतंत्र देश के रूप में शामिल हुआ था। परन्तु चीन अपने
विस्तारवाद के कारण उसे अपना प्रान्त मानता रहा है। इसलिए कुछ लोगों को
उकसाकर तिब्बत में विद्रोह शुरू करा दिया और 1959 में अपनी सेनाएँ भेजकर उस
पर कब्जा कर लिया। वहाँ के वैध शासक दलाई लामा को अपने चन्द समर्थकों के
साथ वहाँ से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी और वे आज भी भारत में ही रहकर
तिब्बत की निर्वासित सरकार चला रहे हैं। दुर्भाग्य से नेहरू ने ‘पंचशील’ की
आड़ लेकर इसे चीन का आंतरिक मामला बताया और चीन की हरकतों का कोई विरोध
नहीं किया। यदि नेहरू ने चीन का विरोध किया होता, तो चीन के विस्तारवाद पर
तभी लगाम लग गयी होती।
यहाँ यह याद दिलाना आवश्यक है कि यदि तिब्बत को
एक स्वतंत्र देश मान लिया जाये, तो भारत की एक इंच सीमा भी चीन से नहीं
मिलती। इसलिए ऐसा होने पर भारत-चीन सीमा विवाद होता ही नहीं, बल्कि
तिब्बत-चीन सीमा विवाद होता। चीनी विस्तारवाद तिब्बत को ही नहीं, बल्कि
नेपाल, भूटान, सिक्किम, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश को भी अपने में शामिल
करना चाहता है और यह बात कोई छिपी-ढकी नहीं है। परन्तु नेहरू आँखें बन्द
करके तब तक सोते रहे, जब तक चीन ने भारत पर आक्रमण नहीं कर दिया। यह बात
नहीं कि देश के अन्य नेताओं ने नेहरू को सावधान नहीं किया था। डा.
अम्बेडकर, डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. राम मनोहर लोहिया ही नहीं संघ के
तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी ने भी नेहरू को चीनी विस्तारवाद से सावधान
रहने और उस पर बिल्कुल भी विश्वास न करने की चेतावनी दी थी। परन्तु नेहरू
ने इस सभी को मूर्ख बताया था और कहा कि हमें चीनी नेताओं पर पूरा विश्वास
है कि वे पंचशील का पालन करेंगे।
नेहरू की आँखें तब खुलीं जब 1962 में
चीन ने भारत पर खुला आक्रमण कर दिया और भारत का एक बड़ा भूभाग हड़प लिया।
अपनी और गाँधी की मूर्खता के कारण नेहरू ने भारत की सेनाओं को भी ताकतवर
नहीं बनाया था, जिससे वे चीन का उचित मुकाबला नहीं कर सके और भारत को अपमान
का गहरा घूँट पीना पड़ा। इसके बाद नेहरू ने स्वयं स्वीकार किया था कि हम
मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे थे।
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